शीर्षक- पचपन खम्भे लाल दीवारें
लेखिका- उषा प्रियंवदा
उषा प्रियंवदा जी की गणना हिन्दी के उन कथाकारों में होती है जिन्होंने आधुनिक जीवन की ऊब, छटपटाहट और अकेलेपन की स्थिति को व्यक्त किया है, यही कारण है कि उनकी रचनाओं में एक ओर प्रबल स्वर मिलता है तो दूसरी ओर उसमें विचित्र प्रसंगों तथा संवेदनाओं को हर वर्ग का पाठक अनुभव करता है.
प्रकाशन वर्ष- 1961
"हर एक का जीवन एक ऐसा अनुलंघनीय दुर्ग है जिसका
अतिक्रमण किसी का अधिकार नहीं है"
पुरानी हिंदी की किताब पढ़ना मेरे लिए सुकून जैसा है.यह किताब बहुत खूबसूरत है जिसकी समीक्षा लिखना मेरे लिए कठिन है. बस दिल से कुछ लिखना चाहती थी इस किताब के बारे में इसलिए लिख दिया. कुछ कहानियाँ हमेशा के लिए दिल में बस जाती हैं सुषमा और नील की कहानी भी वैसी ही है मेरे लिए.
काफी समय हो गया किताब को पढ़े हुए पर
अभी भी मन अटका हुआ है सुषमा और नील के पास.
कैसा होता अगर सुषमा और नील हमेशा के लिए साथ हो जाते. पर ऐसा कम ही होता है जो हम सोचे या चाहें वो सच में हो जाए. आधुनिक जीवन की यही एक विडम्बना है कि जो हम नहीं चाहते हैं वही करने के लिए विवश हैं. लेखिका ने इस स्थिति को बहुत ही कलात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है.
यह कहानी हर उस अविवाहित स्त्री की है जो विवाह तो करना चाहती हैं पर उनका विवाह नहीं हो सका.
भारतीय समाज में विवाह को एक बहुत ऊँचा दर्जा दिया गया है. आज भी अविवाहित स्त्री को देख कर यही प्रश्न किया जाता है तुमने शादी क्यों नहीं की? प्रश्न पूछने वाला कभी भी उस स्त्री के मनोभावों को नहीं समझ पाता है.
यह किताब उषा प्रियंवदा जी की एक बेहतरीन रचना है जिसमें उन्होंने एक अविवाहित स्त्री सुषमा के मनोभावों को बहुत खूबसूरती से प्रस्तुत किया है. सुषमा दिल्ली के एक कालेज में इतिहास की प्रोफेसर और हास्टल की वार्डन है. उसके पूरे परिवार की जिम्मेदारी उस पर ही है.
उसने अपनी खुशियों को त्याग कर परिवार को संभालने की जिम्मेदारी को अपना मान लिया है. तभी उसकी दोस्ती नील से होती है जो उससे उम्र में छोटा है और धीरे धीरे ये दोस्ती प्यार में बदल जाती है तब उसे यह एहसास होता है कि उसकी खुशी किस में है. यह जानते हुए की उसकी खुशी नील के साथ है फिर भी वह अपने परिवार की खुशी के लिए नील से दूर होने का कठिन फैसला लेती है.
समाज, एक उच्च पद पर कार्यरत महिला का अपने मित्र के साथ घूमना फिरना, पद की गरिमा को ठेस पहुँचाना मानता है. अपने साथ काम करने वालों के तानों से परेशान हो कर सुषमा नील से मिलना बंद कर देती है. पर कहते हैं न सच्चा प्यार दूर रहकर भी कम नहीं होता है. सुषमा की माँ का उसकी छोटी बहन की शादी के लिए परेशान होना सुषमा को बहुत विचलित कर देता है.
उसके मन में नील के लिए प्यार के साथ एक आशंका भी है कि शादी के बाद भी क्या वो अपने परिवार की जिम्मेदारी को ऐसे ही निभा पायेगी भी या नहीं.अपने परिवार की जिम्मेदारी उठाने के लिए वह नील के शादी के प्रस्ताव को मना कर देती है. इस किताब को पढ़ते हुए आप सुषमा और नील से जुड़ा हुआ महसूस करेंगे. सुषमा के मनोभावों को उषा जी ने शब्दों में बहुत खूबसूरती से दर्शाया है. 🌻
💕उषा जी ने नील और सुषमा के पवित्र प्रेम को बहुत सुन्दर तरीके से प्रदर्शित किया है.💕
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